कलावा (रक्षासूत्र/मौली) के बारें में यह जानकारी आपको नहीं पता होगी

 


🔹कलावा किस हाथ में बांधना चाहिए?

🔹कलावा कितनी बार लपेटना चाहिए?

🔹कलावा किस दिन खोलना चाहिए ?

🔹कलावा बांधने के फायदे तथा महत्व

🔹पुराना कलावा कहा रखे ?

🔹ज्योतिष विज्ञान तथा कलावा

🔹कलावा तथा आयुर्वेद 🧵

रक्षा सूत्र (कलावा):

कलावा को रक्षा सूत्र भी कहा जाता है, हिंदू धर्म में कलावा अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। हिन्दू धर्म में प्रत्येक धार्मिक कर्म यानी पूजा-पाठ, उद्घाटन, यज्ञ, हवन, संस्कार आदि के पूर्व पुरोहितों द्वारा यजमान के दाएं हाथ में मौली बांधी जाती है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार जीवन में आने वाले संकट और परेशानियों से छुटकारा पाने के लिए कलावा या रक्षा सूत्र बांधा जाता है, कलावा बांधने से व्यक्ति पर त्रिदेवों और तीन महादेवियों की कृपा होती है, तीन देवियों मां लक्ष्मी, मां सरस्वती तथा महाकाली से धन सम्पति, विद्या-बुद्धि और शक्ति मिलती है। 

🔹कलावा किस हाथ में बांधना चाहिए?

कलावा किस हाथ में बांधे इस बारे में भी नियम है, जो कि पुरुषों और महिलाओं के लिए अलग-अलग हैं. पुरुषों और कुंवारी कन्याओं को दाहिने हाथ में और विवाहित महिलाओं को हमेशा बाएं हाथ में कलावा बांधने चाहिए।

🔹कलावा कलाई पर कितनी बार लपेटनी चाहिए?

कलावा बंधवाते समय इस बात का ध्यान रखें कि आपकी कलाई पर इसे तीन, पांच या सात बार लपेटा गया हो. कलावा बांधते समय कभी भी हाथ खाली नहीं होना चाहिए ऐसे में जिस हाथ में कलावा बांधा जा रहा है उसमें एक सिक्का रखें तथा उसके बाद दूसरे हाथ को सिर पर रखें। कलावा बांधने के बाद वह सिक्का कलावा बांधने वाले व्यक्ति, पंडित जी को दे दें।

🔹किस दिन खोलना चाहिए कलावा?

रक्षा सूत्र या कलावा किसी भी दिन या किसी भी समय नहीं खोलना चाहिए, क्योंकि इसे बांधने से जातक की रक्षा होती है। कलावा या रक्षा सूत्र खोलने के लिए मंगलवार या शनिवार का दिन सबसे सही माना जाता है। पुराना कलावा खोलने के बाद पूजा घर में बैठकर दूसरा कलावा बांध लेना शुभ होता है।

🔹 पुराना कलावा कहां रखें?

पुराना कलावा खोलने के बाद उसे यहां-वहां कहीं भी नहीं फेंकना चाहिए, कलावा निकालकर या तो पीपल के पेड़ के नीचे रखें या फिर किसी बहते पानी में प्रवाहित करना चाहिए। 

🔹कलावा और आयुर्वेद

स्वास्थ्य के दृष्टि से भी रक्षासूत्र को बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है. इससे कई प्रकार के शारीरिक पीड़ाएं दूर रहती हैं. आयुर्वेद शास्त्र में बताया गया है कि शरीर के कई मुख्य नसें हमारी कलाई से होकर निकलती हैं, ऐसे में जब इस स्थान पर रक्षासूत्र बांधा जाता है, तब इसके दबाव से त्रिदोष अर्थात वात, पित्त और कफ से जुड़ी समस्या कई हद तक दूर रहती है. इसके साथ मधुमेह, हृदय रोग, रक्तचाप इत्यादि जैसी गंभीर बीमारियों पर भी बहुत हद तक नियंत्रण पाया जा सकता है ।

🔹 ज्योतिष दृष्टि से कैसे उपयोगी है रक्षासूत्र? 

ज्योतिष शास्त्र में भी रक्षासूत्र के विषय में विस्तार से जानकारी दी गई है. बताया गया है कि कलाई पर लाल या केसरी रंग का रक्षासूत्र बांधने से कुंडली में मंगल का अशुभ प्रभाव कम होने लगता है और जातक को सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है. कुछ ज्योतिष विद्वान काले रंग का धागा धारण करने की सलाह देते हैं. कुछ लोग इसे कलाई पर तो कुछ पैर में बांधते हैं. बता दें कि इसे शनि ग्रह का प्रतीक माना जाता है और इससे शनि ग्रह का अशुभ प्रभाव कम हो जाता है।

🔹 कलावा बांधने के फायदे तथा महत्व

▪️तीन धागों का यह सूत्र त्रिदेवों व त्रिशक्तियों को समर्पित हो जाता है।  इस रक्षा-सूत्र को संकल्पपूर्वक बांधने से व्यक्ति पर मारण, मोहन, विद्वेषण, उच्चाटन, भूत-प्रेत और जादू-टोने का असर नहीं होता।

▪️यह मौली किसी देवी या देवता के नाम पर भी बांधी जाती है जिससे संकटों और विपत्तियों से व्यक्ति की रक्षा होती है। यह मंदिरों में संकल्प के लिए भी बांधी जाती है।

▪️मौली बांधने से त्रिदेव- ब्रह्मा, विष्णु व महेश तथा तीनों देवियों- लक्ष्मी, पार्वती व सरस्वती की कृपा प्राप्त होती है। ब्रह्मा की कृपा से कीर्ति, विष्णु की कृपा से रक्षा तथा शिव की कृपा से दुर्गुणों का नाश होता है। इसी प्रकार लक्ष्मी से धन, दुर्गा से शक्ति एवं सरस्वती की कृपा से बुद्धि प्राप्त होती है।

▪️ कलावा बांधने से उसके पवित्र और शक्तिशाली बंधन होने का अहसास होता रहता है और इससे मन में शांति तथा पवित्रता बनी रहती है। व्यक्ति के मन और मस्तिष्क में बुरे विचार नहीं आते तथा वह गलत रास्तों पर नहीं भटकता है। कई अवसरों पर इससे व्यक्ति पाप कार्य करने से बच जाता है।

▪️ कमर पर बांधा गये रक्षा सूत्र के संबंध में विद्वान लोग कहते हैं कि इससे सूक्ष्म शरीर स्थिर रहता है तथा कोई दूसरी बुरी आत्मा आपके शरीर में प्रवेश नहीं कर सकती है। बच्चों को अक्सर कमर में मौली बांधी जाती है। यह काला धागा भी होता है। इससे पेट में किसी भी प्रकार के रोग नहीं होते।  

।।श्री नृसिंह द्वादशनाम स्तोत्रम् ।।


 ।।श्री नृसिंह द्वादशनाम स्तोत्रम् ।।


प्रथमं तु महाज्वालो द्वितीयं उग्र केसरी।

वज्रनखस्तृतीयं तु चतुर्थन्तु विदारणः।।


सिंहास्यः पञ्चमं चैव षष्ठं कशिपुमर्दनः । 

सप्तमं रिपुहन्ता च अष्टमं देववल्ल्भः ।। 


प्रह्लादराजो नवमं दशमं द्वादशात्मकः ।

एकादशं महारुद्रो द्वादशं करुणानिधिः।।


एतानि द्वादश नामानि नृसिंहस्य महात्मनः।

मंत्रराजेति विख्यातं सर्वपापहरं शुभम् ।।   


ज्वरापस्मारकुष्टादितापज्वरनिवारणं ।

राजद्वारे तथा मार्गे संग्रामेषु जलान्तरे ।।


गिरिगव्यहरगोव्ये व्याघ्रचोरमहोरगे । 

आवर्तनं सहस्त्रेषु लभते वाञ्छितं फलम् ।।


।।श्रीब्रह्मपुराणे ब्रह्मनारदसम्वादे श्रीलक्ष्मीनृसिंह द्वादशनाम स्तोत्रं सम्पूर्णं।।


#मंगल और #बृहस्पति ग्रह

ये लक्ष्मी नृसिंह द्वादशनाम स्तोत्र श्री "ब्रह्मपुराण" के ब्रह्मनारद सम्वाद से लिया गया है इस के एक हजार पाठ करने से सभी मनोकामना पूर्ण होती है।

मंगल ग्रह की पीड़ा हो, बार बार छोटी बड़ी चोट लग रही है, ब्लड इन्फेक्शन हो रहा हो, शरीर मे रक्त विकारों से दाने या त्वचा संबंधी विकार हो रहे हों, तो इस द्वादश नाम का पाठ करना चाहिए।

गुरु मंगल की कष्टकारक युति में भी इस स्तोत्र का पाठ विधि पूर्वक करने बहुत लाभ होता है।

इसके ऊपर के चार श्लोक ही द्वादशनाम हैं नीचे के दो श्लोक फलश्रुति हैं तो इस फलश्रुति को जब आप लगातार पाठ के समय समापन वाले पाठ करते समय पढ़ें।

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फलश्रुति

ज्वरापस्मारकुष्टादितापज्वरनिवारणं ।

राजद्वारे तथा मार्गे संग्रामेषु जलान्तरे ।।

गिरिगव्यहरगोव्ये व्याघ्रचोरमहोरगे । 

आवर्तनं सहस्त्रेषु लभते वाञ्छितं फलम् ।।

।। गोरख शाबर गायत्री मन्त्र ।।


मंत्र:

ॐ गुरुजी, सत नमः आदेश। गुरुजी को आदेश। 
ॐकारे शिव-रुपी, मध्याह्ने हंस-रुपी, सन्ध्यायां साधु-रुपी। 
हंस, परमहंस दो अक्षर। 
गुरु तो गोरक्ष, काया तो गायत्री। 
ॐ ब्रह्म, सोऽहं शक्ति, शून्य माता, अवगत पिता, विहंगम जात, अभय पन्थ, सूक्ष्म-वेद, असंख्य शाखा, अनन्त प्रवर, निरञ्जन गोत्र, त्रिकुटी क्षेत्र, जुगति जोग, जल-स्वरुप रुद्र-वर्ण। 
सर्व-देव ध्यायते। 
आए श्री शम्भु-जति गुरु गोरखनाथ। 
ॐ सोऽहं तत्पुरुषाय विद्महे शिव गोरक्षाय धीमहि तन्नो गोरक्षः प्रचोदयात्। 
ॐ इतना गोरख-गायत्री-जाप सम्पूर्ण भया। 
गंगा गोदावरी त्र्यम्बक-क्षेत्र कोलाञ्चल अनुपान शिला पर सिद्धासन बैठ। 
नव-नाथ, चौरासी सिद्ध, अनन्त-कोटि-सिद्ध-मध्ये श्री शम्भु-जति गुरु गोरखनाथजी कथ पढ़, जप के सुनाया। सिद्धो गुरुवरो, आदेश-आदेश।।”

साधन-विधि एवं प्रयोग:

प्रतिदिन गोरखनाथ जी की प्रतिमा का पंचोपचार से पूजनकर २१, २७, ५१ या १०८ जप करें। नित्य जप से भगवान् गोरखनाथ की कृपा मिलती है, जिससे साधक और उसका परिवार सदा सुखी रहता है। बाधाएँ स्वतः दूर हो जाती है। सुख-सम्पत्ति में वृद्धि होती है और अन्त में परम पद प्राप्त होता है।

।। हनुमान रक्षा शाबर मन्त्र ।।


“ॐ गर्जन्तां घोरन्तां, इतनी छिन कहाँ लगाई ? 
साँझ क वेला, 
लौंग-सुपारी-पान-फूल-इलायची-धूप-दीप-रोट॒लँगोट-फल-फलाहार मो पै माँगै। 
अञ्जनी-पुत्र प्रताप-रक्षा-कारण वेगि चलो। 
लोहे की गदा कील, 
चं चं गटका चक कील, 
बावन भैरो कील, 
मरी कील, 
मसान कील, 
प्रेत-ब्रह्म-राक्षस कील, 
दानव कील, 
नाग कील, 
साढ़ बारह ताप कील, 
तिजारी कील, 
छल कील, 
छिद कील, 
डाकनी कील, 
साकनी कील, 
दुष्ट कील, 
मुष्ट कील, 
तन कील, 
काल-भैरो कील, 
मन्त्र कील, 
कामरु देश के दोनों दरवाजा कील, 
बावन वीर कील, 
चौंसठ जोगिनी कील, 
मारते क हाथ कील, 
देखते क नयन कील, 
बोलते क जिह्वा कील, 
स्वर्ग कील, 
पाताल कील, 
पृथ्वी कील, 
तारा कील, 
कील बे कील, 
नहीं तो अञ्जनी माई की दोहाई फिरती रहे। 
जो करै वज्र की घात, उलटे वज्र उसी पै परै। छात फार के मरै। 
ॐ खं-खं-खं जं-जं-जं वं-वं-वं रं-रं-रं लं-लं-लं टं-टं-टं मं-मं-मं। 
महा रुद्राय नमः। 
अञ्जनी-पुत्राय नमः। 
हनुमताय नमः। 
वायु-पुत्राय नमः। 
राम-दूताय नमः।”

विधिः

अत्यन्त लाभ-दायक अनुभूत मन्त्र है। १००० पाठ करने से सिद्ध होता है। अधिक कष्ट हो, तो हनुमानजी का फोटो टाँगकर, ध्यान लगाकर लाल फूल और गुग्गूल की आहुति दें। लाल लँगोट, फल, मिठाई, ५ लौंग, ५ इलायची, १ सुपारी चढ़ा कर पाठ करें।

।। श्री त्रिपुर भैरवी कवचम् ।।


।। श्रीपार्वत्युवाच ।।

देव-देव महा-देव, सर्व-शास्त्र-विशारद ! कृपां कुरु जगन्नाथ ! धर्मज्ञोऽसि महा-मते ! ।
भैरवी या पुरा प्रोक्ता, विद्या त्रिपुर-पूर्विका । तस्यास्तु कवचं दिव्यं, मह्यं कफय तत्त्वतः ।
तस्यास्तु वचनं श्रुत्वा, जगाद् जगदीश्वरः । अद्भुतं कवचं देव्या, भैरव्या दिव्य-रुपि वै ।

।। ईश्वर उवाच ।।

कथयामि महा-विद्या-कवचं सर्व-दुर्लभम् । श्रृणुष्व त्वं च विधिना, श्रुत्वा गोप्यं तवापि तत् ।
यस्याः प्रसादात् सकलं, बिभर्मि भुवन-त्रयम् । यस्याः सर्वं समुत्पन्नं, यस्यामद्यादि तिष्ठति ।
माता-पिता जगद्-धन्या, जगद्-ब्रह्म-स्वरुपिणी । सिद्धिदात्री च सिद्धास्या, ह्यसिद्धा दुष्टजन्तुषु ।
सर्व-भूत-प्रियङ्करी, सर्व-भूत-स्वरुपिणी । ककारी पातु मां देवी, कामिनी काम-दायिनी ।
एकारी पातु मां देवी, मूलाधार-स्वरुपिणी । ईकारी पातु मां देवी, भूरि-सर्व-सुख-प्रदा ।
लकारी पातु मां देवी, इन्द्राणी-वर-वल्लभा । ह्रीं-कारी पातु मां देवी, सर्वदा शम्भु-सु्न्दरी ।
एतैर्वर्णैर्महा-माया, शाम्भवी पातु मस्तकम् । ककारे पातु मां देवी, शर्वाणी हर-गेहिनी ।
मकारे पातु मां देवी, सर्व-पाप-प्रणाशिनी । ककारे पातु मां देवी, काम-रुप-धरा सदा ।
ककारे पातु मां देवी, शम्बरारि-प्रिया सदा । पकारे पातु मां देवी, धरा-धरणि-रुप-धृक् ।
ह्रीं-कारी पातु मां देवी, अकारार्द्ध-शरीरिणी । एतैर्वर्णैर्महा-माया, काम-राहु-प्रियाऽवतु ।
मकारः पातु मां देवी ! सावित्री सर्व-दायिनी । ककारः पातु सर्वत्र, कलाम्बर-स्वरुपिणी ।
लकारः पातु मां देवी, लक्ष्मीः सर्व-सुलक्षणा । ह्रीं पातु मां तु सर्वत्र, देवी त्रि-भुवनेश्वरी ।
एतैर्वर्णैर्महा-माया, पातु शक्ति-स्वरुपिणी । वाग्-भवं मस्तकं पातु, वदनं काम-राजिका ।
शक्ति-स्वरुपिणी पातु, हृदयं यन्त्र-सिद्धिदा । सुन्दरी सर्वदा पातु, सुन्दरी परि-रक्षतु ।
रक्त-वर्णा सदा पातु, सुन्दरी सर्व-दायिनी । नानालङ्कार-संयुक्ता, सुन्दरी पातु सर्वदा ।
सर्वाङ्ग-सुन्दरी पातु, सर्वत्र शिव-दायिनी । जगदाह्लाद-जननी, शम्भु-रुपा च मां सदा ।
सर्व-मन्त्र-मयी पातु, सर्व-सौभाग्य-दायिनी । सर्व-लक्ष्मी-मयी देवी, परमानन्द-दायिनी ।
पातु मां सर्वदा देवी, नाना-शङ्ख-निधिः शिवा । पातु पद्म-निधिर्देवी, सर्वदा शिव-दायिनी ।
दक्षिणामूर्तिर्मां पातु, ऋषिः सर्वत्र मस्तके । पंक्तिशऽछन्दः-स्वरुपा तु, मुखे पातु सुरेश्वरी ।
गन्धाष्टकात्मिका पातु, हृदयं शाङ्करी सदा । सर्व-सम्मोहिनी पातु, पातु संक्षोभिणी सदा ।
सर्व-सिद्धि-प्रदा पातु, सर्वाकर्षण-कारिणी । क्षोभिणी सर्वदा पातु, वशिनी सर्वदाऽवतु ।
आकर्षणी सदा पातु, सम्मोहिनी सर्वदाऽवतु । रतिर्देवी सदा पातु, भगाङ्गा सर्वदाऽवतु ।
माहेश्वरी सदा पातु, कौमारी सदाऽवतु । सर्वाह्लादन-करी मां, पातु सर्व-वशङ्करी ।
क्षेमङ्करी सदा पातु, सर्वाङ्ग-सुन्दरी तथा । सर्वाङ्ग-युवतिः सर्वं, सर्व-सौभाग्य-दायिनी ।
वाग्-देवी सर्वदा पातु, वाणिनी सर्वदाऽवतु । वशिनी सर्वदा पातु, महा-सिद्धि-प्रदा सदा ।
सर्व-विद्राविणी पातु, गण-नाथः सदाऽवतु । दुर्गा देवी सदा पातु, वटुकः सर्वदाऽवतु ।
क्षेत्र-पालः सदा पातु, पातु चावीर-शान्तिका । अनन्तः सर्वदा पातु, वराहः सर्वदाऽवतु ।
पृथिवी सर्वदा पातु, स्वर्ण-सिंहासनं तथा । रक्तामृतं च सततं, पातु मां सर्व-कालतः ।
सुरार्णवः सदा पातु, कल्प-वृक्षः सदाऽवतु । श्वेतच्छत्रं सदा पातु, रक्त-दीपः सदाऽवतु ।
नन्दनोद्यानं सततं, पातु मां सर्व-सिद्धये । दिक्-पालाः सर्वदा पान्तु, द्वन्द्वौघाः सकलास्तथा ।
वाहनानि सदा पान्तु, अस्त्राणि पान्तु सर्वदा । शस्त्राणि सर्वदा पान्तु, योगिन्यः पान्तु सर्वदा ।
सिद्धा सदा देवी, सर्व-सिद्धि-प्रदाऽवतु । सर्वाङ्ग-सुन्दरी देवी, सर्वदा पातु मां तथा ।
आनन्द-रुपिणी देवी, चित्-स्वरुपां चिदात्मिका । सर्वदा सुन्दरी पातु, सुन्दरी भव-सुन्दरी ।
पृथग् देवालये घोरे, सङ्कटे दुर्गमे गिरौ । अरण्ये प्रान्तरे वाऽपि, पातु मां सुन्दरी सदा ।

।। फल-श्रुति ।।

इदं कवचमित्युक्तो, मन्त्रोद्धारश्च पार्वति ! य पठेत् प्रयतो भूत्वा, त्रि-सन्ध्यं नियतः शुचिः ।
तस्य सर्वार्थ-सिद्धिः स्याद्, यद्यन्मनसि वर्तते । गोरोचना-कुंकुमेन, रक्त-चन्दनेन वा ।
स्वयम्भू-कुसुमैः शुक्लैर्भूमि-पुत्रे शनौ सुरै । श्मशाने प्रान्तरे वाऽपि, शून्यागारे शिवालये ।
स्व-शक्त्या गुरुणा मन्त्रं, पूजयित्वा कुमारिकाः । तन्मनुं पूजयित्वा च, गुरु-पंक्तिं तथैव च ।
देव्यै बलिं निवेद्याथ, नर-मार्जार-शूकरैः । नकुलैर्महिषैर्मेषैः, पूजयित्वा विधानतः ।
धृत्वा सुवर्ण-मध्यस्थं, कण्ठे वा दक्षिणे भुजे । सु-तिथौ शुभ-नक्षत्रे, सूर्यस्योदयने तथा ।
धारयित्वा च कवचं, सर्व-सिद्धिं लभेन्नरः ।
कवचस्य च माहात्म्यं, नाहं वर्ष-शतैरपि । शक्नोमि तु महेशानि ! वक्तुं तस्य फलं तु यत् ।
न दुर्भिक्ष-फलं तत्र, न चापि पीडनं तथा । सर्व-विघ्न-प्रशमनं, सर्व-व्याधि-विनाशनम् ।
सर्व-रक्षा-करं जन्तोः, चतुर्वर्ग-फल-प्रदम्, मन्त्रं प्राप्य विधानेन, पूजयेत् सततः सुधीः ।
तत्रापि दुर्लभं मन्ये, कवचं देव-रुपिणम् ।
गुरोः प्रसादमासाद्य, विद्यां प्राप्य सुगोपिताम् । तत्रापि कवचं दिव्यं, दुर्लभं भुवन-त्रयेऽपि ।
श्लोकं वास्तवमेकं वा, यः पठेत् प्रयतः शुचिः । तस्य सर्वार्थ-सिद्धिः, स्याच्छङ्करेण प्रभाषितम् ।
गुरुर्देवो हरः साक्षात्, पत्नी तस्य च पार्वती । अभेदेन यजेद् यस्तु, तस्य सिद्धिरदूरतः ।

।। इति श्री रुद्र-यामले भैरव-भैरवी-सम्वादे-श्रीत्रिपुर-भैरवी-कवचं सम्पूर्णम् ।।

इन देवी मन्त्रों से दूर भगाइए हर एक रोग



“ॐ उं उमा-देवीभ्यां नमः”
‘Om um uma-devibhyaM namah’

इस मन्त्र से मस्तक-शूल (headache) तथा मज्जा-तन्तुओं (Nerve Fibres) की समस्त विकृतियाँ दूर होती है – ‘पागल-पन’(Insanity, Frenzy, Psychosis, Derangement, Dementia, Eccentricity)तथा ‘हिस्टीरिया’ (hysteria) पर भी इसका प्रभाव पड़ता है ।

“ॐ यं यम-घण्टाभ्यां नमः”
‘Om yaM yam-ghantabhyaM namah’

इस मन्त्र से ‘नासिका’ (Nose) के विकार दूर होते हैं ।

“ॐ शां शांखिनीभ्यां नमः”
‘Om shaM shankhinibhyaM namah”

इस मन्त्र से आँखों के विकार (Eyes disease) दूर होते हैं । सूर्योदय से पूर्व इस मन्त्र से अभिमन्त्रित रक्त-पुष्प से आँख झाड़ने से ‘फूला’ आदि विकार नष्ट होते हैं ।

“ॐ द्वां द्वार-वासिनीभ्यां नमः”
‘Om dwaM dwar-vasineebhyaM namah’

इस मन्त्र से समस्त ‘कर्ण-विकार’ (Ear disease) दूर होते हैं ।

“ॐ चिं चित्र-घण्टाभ्यां नमः”
‘Om chiM chitra-ghantabhyaM namah’

इस मन्त्र से ‘कण्ठमाला’ तथा कण्ठ-गत विकार दूर होते हैं ।

“ॐ सं सर्व-मंगलाभ्यां नमः”
‘Om saM sarva-mangalabhyaM namah’

इस मन्त्र से जिह्वा-विकार (tongue disorder) दूर होते हैं । तुतलाकर बोलने वालों (Lisper) या हकलाने वालों (stammering) के लिए यह मन्त्र बहुत लाभदायक है ।

“ॐ धं धनुर्धारिभ्यां नमः”
‘Om dhaM dhanurdharibhyaM namah’

इस मन्त्र से पीठ की रीढ़ (Spinal) के विकार (backache) दूर होते है । This is also useful for Tetanus.

“ॐ मं महा-देवीभ्यां नमः”
‘Om mM mahadevibhyaM namah’

इस मन्त्र से माताओं के स्तन विकार अच्छे होते हैं । कागज पर लिखकर बालक के गले में बाँधने से नजर, चिड़चिड़ापन आदि दोष-विकार दूर होते हैं ।

“ॐ शों शोक-विनाशिनीभ्यां नमः”
‘Om ShoM Shok-vinashineebhyaM namah’

इस मन्त्र से समस्त मानसिक व्याधियाँ नष्ट होती है । ‘मृत्यु-भय’ दूर होता है । पति-पत्नी का कलह-विग्रह रुकता है । इस मन्त्र को साध्य के नाम के साथ मंगलवार के दिन अनार की कलम से रक्त-चन्दन से भोज-पत्र पर लिखकर, शहद में डुबो कर रखे । मन्त्र के साथ जिसका नाम लिखा होगा, उसका क्रोध शान्त होगा ।

“ॐ लं ललिता-देवीभ्यां नमः”
‘Om laM lalita-devibhyaM namah’

इस मन्त्र से हृदय-विकार (Heart disease) दूर होते हैं ।

“ॐ शूं शूल-वारिणीभ्यां नमः”
‘Om shooM shool-vaarineebhyaM namah’

इस मन्त्र से ‘उदरस्थ व्याधियों’ (Abdominal) पर नियन्त्रण होता है । प्रसव-वेदना के समय भी मन्त्र को उपयोग में लिया जा सकता है ।

“ॐ कां काल-रात्रीभ्यां नमः”
‘Om kaaM kaal-raatribhyaM namah’

इस मन्त्र से आँतों (Intestine) के समस्त विकार दूर होते हैं । विशेषतः ‘अक्सर’, ‘आमांश’ आदि विकार पर यह लाभकारी है ।

“ॐ वं वज्र-हस्ताभ्यां नमः”
‘Om vaM vajra-hastabhyaM namah’

इस मन्त्र से समस्त ‘वायु-विकार’ दूर होते हैं । ‘ब्लड-प्रेशर’ के रोगी के रोगी इसका उपयोग करें ।

“ॐ कौं कौमारीभ्यां नमः”
‘Om kauM kaumareebhyaM namah’

इस मन्त्र से दन्त-विकार (Teeth disease) दूर होते हैं । बच्चों के दाँत निकलने के समय यह मन्त्र लाभकारी है ।

“ॐ गुं गुह्येश्वरी नमः”
‘Om guM guhyeshvari namah’

इस मन्त्र से गुप्त-विकार दूर होते हैं । शौच-शुद्धि से पूर्व, बवासीर के रोगी १०८ बार इस मन्त्र का जप करें । सभी प्रकार के प्रमेह – विकार भी इस मन्त्र से अच्छे होते हैं ।

“ॐ पां पार्वतीभ्यां नमः”
‘Om paaM paarvatibhyaM namah’

इस मन्त्र से ‘रक्त-मज्जा-अस्थि-गत विकार’ दूर होते हैं । कुष्ठ-रोगी इस मन्त्र का प्रयोग करें ।

“ॐ मुं मुकुटेश्वरीभ्यां नमः”
‘Om muM mukuteshvareebhyaM namah’

इस मन्त्र से पित्त-विकार दूर होते हैं । अम्ल-पित्त के रोगी इस मन्त्र का उपयोग करें ।

“ॐ पं पद्मावतीभ्यां नमः”
‘Om paM padmavateebhyaM namah’

इस मन्त्र से कफज व्याधियों पर नियन्त्रण होता है ।

विधिः

उपर्युक्त मन्त्रों को सर्व-प्रथम किसी पर्व-काल में १००८ बार जप कर सिद्ध कर लेना चाहिये । फिर प्रतिदिन जब तक विकार रहे, १०८ बार जप करें अथवा सुविधानुसार अधिक-से-अधिक जप करें । विकार दूर होने पर ‘कुमारी-पूजन, ब्राह्मण-भोजन आदि करें ।

दक्षिण कालिका के मन्त्र और पूजा विधि


भगवती कालिका अर्थात काली के अनेक स्वरुप, अनेक मन्त्र तथा अनेक उपासना विधियां है। यथा-श्यामा, दक्षिणा कालिका (दक्षिण काली) गुह्म काली, भद्रकाली, महाकाली आदि । दशमहाविद्यान्तर्गत भगवती दक्षिणा काली (दक्षिण कालीका) की उपासना की जाती है।

दक्षिण कालिका के मन्त्र :

भगवती दक्षिण कालिका के अनेक मन्त्र है, जिसमें से कुछ इस प्रकार है।
(1) क्रीं,
(2) ॐ ह्रीं ह्रीं हुं हुं क्रीं क्रीं क्रीं दक्षिण कालिके क्रीं क्रीं क्रीं हुं हुं ह्रीं ह्रीं।
(3) ह्रीं ह्रीं हुं हुं क्रीं क्रीं क्रीं दक्षिण कालिके क्रीं क्रीं हुं हुं ह्रीं ह्रीं स्वाहा।
(4) नमः ऐं क्रीं क्रीं कालिकायै स्वाहा।
(5) नमः आं क्रां आं क्रों फट स्वाहा कालि कालिके हूं।
(6) क्रीं क्रीं क्रीं ह्रीं ह्रीं हुं हुं दक्षिण कालिके क्रीं क्रीं क्रीं ह्रीं ह्रीं हुं हुं स्वाहा। इनमें से कीसी भी मन्त्र का जप किया जा सकता है।

पूजा -विधि:

दैनिक कृत्य स्नान-प्राणायम आदि से निवृत होकर स्वच्छ वस्त्र धारण कर, सामान्य पूजा-विधि से काली- यन्त्र का पूजन करें। तत्पश्चात ॠष्यादि- न्यास एंव करागन्यास करके भगवती का इस प्रकार ध्यान करें:

शवारुढां महाभीमां घोरदृंष्ट्रां वरप्रदाम्।
हास्य युक्तां त्रिनेत्रां च कपाल कर्तृकाकराम्।
मुक्त केशी ललजिह्वां पिबंती रुधिरं मुहु:।
चतुर्बाहूयुतां देवीं वराभयकरां स्मरेत्॥”

इसके उपरान्त मूल-मन्त्र द्वारा व्यापक-न्यास करके यथा विधि मुद्रा-प्रदर्शन पूर्वक पुनः ध्यान करना चाहिए।

पुरश्चरण :

कालिका मन्त्र के पुरश्चरण में दो लाख की संख्या में मन्त्र-जप किया है। कुछ मन्त्र केवल एक लाख की संख्या में भी जपे जाते है। जप का दशांश होम घृत द्वारा करना चाहिए । होम का दशांश तर्पण, तर्प्ण का दशांश अभिषेक तथा अभिषेक का दशांश ब्राह्मण – भोजन कराने का नियम है।

विशेष: 

”दक्षिणा कालिका” देवी के मन्त्र रात्रि के समय जप करने से शीघ्र सिद्धि प्रदान करते है। जप के पश्चात स्त्रोत, कवच, ह्रदय आदि उपलब्ध है, उनमें से चाहें जिनका पाठ करना चाहिए । वे सभी साधकों के लिए सिद्धिदायक है।